आलोचना >> आदिवासी स्वर और नयी शताब्दी आदिवासी स्वर और नयी शताब्दीरमणिका गुप्ता
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आदिवासियों के समर्थन में
स्त्रियों और दलितों का पक्ष लेने वाले लेखकों-संपादकों की संख्या बढ़ती जा रही हैं इसका एक कारण यह है कि इस क्षेत्र में नेतृत्व का स्थान लगभग खाली है। पर आदिवासियों को कोई नहीं पूछता क्यों वे राजधानियों में सहज सुलभ नहीं होते। उनकी सुध लेने के लिए उनके पास जाना पड़ेगा-कष्ट उठा कर। इसलिए वे उदाहरण देने और इतिहास की बहसों में लाने के लिए ही ठीक है। इस दृष्टि से रमणिका गुप्ता की तारीफ होनी चाहिए कि ‘आदिवासी स्वर और नई शताब्दी’ की थी पर एक उम्दा कृति दी है। विशेषता यह है कि एक नीतिगत फैसले के तहत हमने इस अंक में केवल वही रचनाएं ली हैं जो आदिवासी लेखकों द्वारा ही लिखी गयी हैं। फलतः आदिवासी मानसिकता की विभिन्न मुद्राओं को समझने का अवसर मिलता है। यह देख कर खुशी नहीं होती कि दलित साहित्य की तरह नये आदिवासी साहित्य में आक्रोश ही मुख्य स्वर बना हुआ है। जहां भी अन्याय है, आक्रोश का न होना स्वास्थ्यहीनता का लक्षण हैं। लेकिन साहित्य के और भी आयाम होते हैं, यह क्यों भुला दिया जाय? -राज किशोर
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